शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

मॉर्निंग पेज ११ और हर जगह बिखरे हुए शब्द

अजीब सा कमरा था। घुटन और सीलन से भरा हुआ। अंधेरे में कुछ दिखता नहीं था। बस काग़ज़ के सफ़ेद पुर्जे चारों ओर बिखरे पड़े थे। जितने पुर्जे उठाती और उन्हें खोलकर पढ़ती, हर पुर्जे पर एक नया शब्द लिखा होता। मैं पूरी रात नींद में ये ही कर रही थी - पुर्जे उठाना और उन्हें खोलकर पढ़ना। पूरी रात मुझे एक भी शब्द ऐसा नहीं मिला जिसका अर्थ मालूम हो मुझे।

पता नहीं कैसी बेचैनी के साथ उठी हूँ। बिस्तर से निकलते ही सबसे पहले लैपटॉप खोल दिया है। बाहर अभी भी अंधेरा है, सो पार्क में जाकर बैठ नहीं सकती। सपने की बेचैनी इस क़दर तारी है कि ड्राईंग रूम में भी घुटन और सीलन की गंध भरी हुई महसूस हो रही है। खिड़कियां खुली होने के बावजूद।

कल पूरे दिन मैं मम्मा की डायरी के चैप्टर्स पर काम करती रही - बिना घर से निकले, बिना नहाए धोए (लेकिन बहुत सारा खा-पीकर)। मैं कुछ लिखने में नाकाम हो रही होती हूं तो खूब सारा खाना खाती हूं। भूल जाती हूं कि लंच दो बार किया या तीन बार। फ्रिज में किसी मीठी चीज़ का बासीपन ढूंढती रहती हूं। डिब्बे तलाश करती रहती हूं हर एक घंटे पर, कि कुछ खाने को मिल जाए। नहाती नहीं। हाथ-पैरों पर क्रीम नहीं लगाती। बाल पता नहीं कितने दिनों से धोए नहीं हैं। नाखूनों की ओर देखकर ध्यान आ रहा है कि इन्हें भी काटने का काम बाकी है। पीठ कहती है कि थक रही है अब। ब्रेक ले लो। और किताब है कि भीतर से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं। इतनी मुश्किल तो मुझे जुड़वां बच्चे पैदा करने में भी नहीं हुई थी।

वजह क्या है कि चैप्टर बार-बार लिख रही हूं, बार-बार डिलीट कर रही हूं?

मेरा अपना डर।

कहानियां लिखना आसान हैं। आप अपनी मर्ज़ी से तय करते हैं कि आपके किरदार किस तरह हालात का सामना करेंगे। या फिर आप किरदारों को पन्ने पर अपनी मर्ज़ी चलाने के लिए छोड़ देते हैं। दोनों सूरतों में आपका निजी नुकसान नहीं हो रहा होता। ज़िन्दगी किरदार की, उसका अच्छा-बुरा उसकी किस्मत। आप तो सिर्फ़ एक ज़रिया हैं।

मम्मा की डायरी में असली ज़िन्दगी के टुकड़े हैं। उन्हें बांटने से ज़्यादा डर इस बात का है कि मेरा अपना पूर्वाग्रह उसपर हावी न हो जाए। पहले ही चैप्टर को कम से कम बीस बार लिख चुकी हूं। जितनी बार लगता है कि अब काम बन गया, उतनी बार एक नई बात याद आ जाती है। दूसरा चैप्टर तो ख़ैर अटक ही गया है। अपनी प्रेगनेंसी के बारे में पब्लिक स्पेस में बात करना तो हमें सिखाया ही नहीं गया। तो आप लिखें कैसे कि आप किन सूरतों से गुज़र रहे थे? आप लिखें कैसे कि एक प्रेगनेंट औरत को अगर सबसे ज़्यादा किसी से बचाने की ज़रूरत होती है तो वो उसी का अपना परिवार होता है। ये चैप्टर तो मुझसे लिखा ही नहीं जा रहा।

कमाल की बात है कि बच्चों के बारे में कई औरतों ने मुझसे बात की, लेकिन प्रेगनेंसी के किस्से बहुत कम लोगों को याद रहे। सबने - एक स्वर में सबने ये कहा कि बच्चे की शक्ल देखते ही भूल जाते हैं कि वे नौ महीने कैसे गुज़रे। मेरे साथ भी यही हुआ था।

लेकिन फिर भी तकलीफ़ें तो थीं। मुझे एक दोपहर तो बिल्कुल नहीं भूलती जब मैं बहुत रोई थी, इसलिए क्योंकि मेरी ऐसी हालत में भी डिस्कशन का मुद्दा ये था कि बच्चों को देखने के लिए कौन रहेगा साथ, और क्या अनु को नौकरी छोड़कर घर (मायके या ससुराल) नहीं आ जाना चाहिए जिससे उसकी मदद करने वाले लोग मिलें? मैं कमज़ोर थी। मुझमें दो बच्चे अकेले पालने की हिम्मत नहीं थी, न भरोसा था कि ये काम मुझसे हो जाएगा। मेरे लिए फ़ैसले मुझे छोड़कर सब ले रहे थे। यहां तक कि मुझे क्या खाना चाहिए से लेकर मुझे किस करवट सोना चाहिए।

दूसरा चैप्टर मुझसे इसलिए नहीं लिखा जा रहा क्योंकि अपनी याद में मैंने भी उन कुछ महीनों को फास्ट-फॉरवर्ड में डाल दिया। मदरहुड का जो सबसे मुश्किल हिस्सा होता है, हम उसपर ही बात करना नहीं चाहते।
वैसे इसे सकरात्मक नज़रिए से भी देखना चाहिए। औरतों में दर्द भुला देने की ग़ज़ब की क्षमता होती है।

लेकिन अब मुझे किसी तरह किताब ख़त्म कर देने की जल्दी है। मन कहीं लग ही नहीं रहा। दिन-रात इसी के बारे में सोचती रहती हूं। फिर भी सही तरीके से स्क्रीन पर कुछ उतरता हुआ नहीं लगता।

बच्चों ने आज बुक फेयर जाने की ज़िद की है। उन्हें लेकर जाना तीन घंटे बाद है, तनाव अभी से हो रहा है। एक दिन गई थी बीच में। किताबों का मेला किताब लिख देने के बाद बिल्कुल अलग तरीके से दिखाई देने लगता है। इतने सालों तक ये ख़्वाहिश पालती रही कि इन लाखों किताबों में किसी दिन मेरी भी एक किताब होगी। अब जब वो मुकाम हासिल हो गया है तो उसकी व्यर्थता का अहसास हो रहा है। हर रोज़ लिखी जाने वाली करोड़ों कहानियों में तुम्हारी एक कहानी हुई भी तो उसका हासिल क्या? ये सोच मुझे लगातार डिप्रेस कर रही है। उस दिन पुस्तक मेले में दो ही तरह के लोग दिखे। जो किताबें छाप और बेच रहे थे, और जो किताबें लिख रहे थे। शायद मैं ग़लत दिन गई होऊं, लेकिन किताब पढ़ने या खरीदने वालों से कहीं ज़्यादा किताब लिखने और बेचने वालों की जमात थी।

जयपुर में भी मुझे इसी तरह की घबराहट और घुटन हुई थी। इतने सारे लेखक, इतने सारे बेहतरीन सुखनवर। और इतनी सारी भीड़ जो सिर्फ़ तमाशा देखने आई है। लिखते सब हैं। पढ़ता कौन होगा?

सबको लिखना चाहिए - और नहीं तो कम से कम डायरी ही सही - मैं इस बात की चैंपियन रही हूं। मुझे लगता है कि लिखते हुए हम अपने तरीके से अपने वक़्त को रिकॉर्ड कर रहे होते हैं और अपना लिखा हुआ ही बाद में हमारा मार्गदर्शन करता है। कहानियों के ज़रिए भी हम अपने ऑल्टर ईगो जीते हैं। वो बन जाते हैं जो किसी और तरीके से बन जाने की इस जनम में हिम्मत नहीं। लिखना हमें हमारे मूल्य तय करने में हमारी मदद करता है। हमारे लिए क्या ग़लत है और क्या सही, उसे तय करने में हमारी मदद करता है।

लेकिन जब हम शोहरत की चाह में लिख रहे हों तो? जब हम सिर्फ़ छपने की ख़्वाहिश में लिख रहे हों तो?

मैंने इतनी बार अपनी ही डायरी के हिस्से लिखे हैं, बच्चों को बड़ा करते हुए उनके लम्हों को रिकॉर्ड किया है कि मम्मा की डायरी मेरे लिए लिखना आसान होना चाहिए था। लेकिन है नहीं, इसलिए क्योंकि अपने लिए लिखते हुए जज किए जाने का डर नहीं था। अब मैं किसी और के लिए लिख रही हूं। छपने के लिए लिख रही हूं। इसलिए डर है। इसलिए अपने पूर्वाग्रहों से अपने ही लेखन को बचाए रखना है। सबसे ज़्यादा अपने लेखन को किसी और चीज़ से बचाना है तो वो है अपेक्षाएं - अपनी, दूसरों की, पाठकों की, प्रकाशकों की।

मुझे अपने सपने का मतलब समझ में आ गया है, और मुझे उस घुटन भरे कमरे से निकलने का रास्ता भी सूझ गया है। आज लिखते हुए ये भूलना होगा कि मैं किसी और के लिए लिख रही हूं। आज मैं मम्मा की डायरी के चैप्टर ठीक वैसे लिखूंगी जैसे अपने लिए लिखती, अपने ब्लॉग के लिए लिखती।

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