सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

मॉर्निंग पेज ६ - गॉन गर्ल देख आने और कुँए में कूद जाने से पहले

हम अपनी बिदाई के टाईम में बड़ी जोर का नौटंकी किए थे। इतना रोए थे, इतना रोए थे विदाई के टाईम कि लोग आजतक मिसाल देते हैं। रोए ही नहीं, रुलाए भी ख़ूब। मशहूर है किस्सा कि पापा के एक दोस्त जो अपने मां-बाप-बहन-बहनोई के गुज़रने पर नहीं रोया, वो मेरी विदाई पर रोए। पापा दो दिन तक रोते रहे थे। बिना खाना-पीना खाए। पापा के लिए वो रोना ज़रूर हीलिंग रहा होगा, मैं आज तक ये सोचती हूं। मैं बहाना थी। पापा के पास इस तरह रोते रहने की कई और वजहें थीं। ज़िन्दगी सबसे स्ट्रिक्ट टीचर होती है। हाथ आगे किए रहो, सटासट सोटा पड़ता रहेगा। रोओगे तो और ज़ोर से पिटाई होगी। इसलिए चुपचाप सहो। टीचर के झपकी लेते ही रो लेना चाहिए। उस दिन पापा को रोने का मौका मिला होगा क्योंकि बेटी की ब्याह की चिंता में कई रात जागी ज़िन्दगी लंबी नींद लेने चली गई थी।

रोना अपने आप में एक थेरेपी है। दहाड़ मार-मारकर रोना उससे भी बड़ी थेरेपी है। ऐसे कम ही मौके मिलते हैं रोने की।

शादी की दसवीं सालगिरह है, और मैं पता नहीं क्यों अपनी विदाई के बारे में सोच रही हं। और सोच रही हूं रोने के बारे में। दहाड़ मार-मारकर रोने के बारे में। खुलकर रोने के बारे में।

लेकिन मॉर्निंग पेज पर अनसेन्सर्ड लिखने का वायदा है, इसलिए मैं सोचूंगी नहीं कि क्या लिख रही हूं। न एडिट करने की कोशिश करूंगी। उंगलियां जितनी तेज़ी से चलती रहेंगी कीबोर्ड पर, चलने दूंगी। ये भी नहीं सोचूंगी कि लोग मुझे मेरे लिखे हुए से किस तरह जज करते हैं। ये भी नहीं सोचूंगी कि मेरा लिखा हुआ कैसे मेरे ही ख़िलाफ़ जा सकता है कभी। इस बात पर यकीन पक्का होता जा रहा है कि जिस दिन सोचे हुए, जिए हुए और लिखे हुए के बीच की दीवारें ख़त्म हो जाएंगी उस दिन ही लिखना सार्थक होगा। वरना झूठ, बेपनाह झूठ, की कहानियां तो हम लगातार बुनते ही रहते हैं।  

सुबह-सुबह बच्चों ने जब एनिवर्सरी की बधाई दी तो ये सोचा कि पांच साल तो अभी गुज़रे थे। अभी कुछ दिन पहले। एक सौ चार बुखार था मुझे उस शाम। घर में लोग आए थे कुछ, जिनमें ज़्यादा भाई के दोस्त थे। मनीष का या मेरा कोई दोस्त नहीं था। ये भी सोच रही थी कि उस साल दीदी और जीजाजी हमारे पड़ोसी थी। नोएडा में ही रहते थे। मेरे मायके की ओर से मम्मी थी, भाई था और भाई के दोस्त थे। मेरी ससुराल की ओर से दीदी, जीजाजी और शरद थे। हमने गाजर का मालपुआ खाकर पांचवीं एनिवर्सरी मनाई। मुझे तोहफ़े में एक घड़ी मिली थी, और एक सूट। डिज़ाईनर था। शायद अनोखी का था। याद नहीं कि कितनी बार पहना था उसे। पता नहीं कैसे उसका रंग जल्दी उतर गया। अनोखी का ही एक और सूट है मेरे पास। उजला है बिल्कुल। सूती का। अभी तक उसका रंग नहीं उतरा।

सोच रही हूं कि उस माइलस्टोन और इन माइलस्टोन के बीच क्या-क्या बदला? वो पांच साल गुज़रे तो मालूम चला। मैंने जुड़वां बच्चे पैदा किए। उनके साथ रात-रात जागती रही, दिन-दिन काटती रही।

इधर पांच सालों में तो बच्चे भी बड़े हो गए हैं। इन्डिपिडेंट हो गए हैं। उन्हें मम्मा-पापा की एनिवर्सरी के लिए दादी-नानी से मिले पैसों में से तोहफे खरीदना आ गया है। आद्या ने उन पैसों से कल सूरजकुंड मेले से हमारे लिए एक बेडकवर लिया। आदित ने मुझसे कहा कि आपने पापा से शादी करके बहुत अच्छा किया मम्मा। हमें इतने अच्छे दादा-दादी मिले। उसने ये भी कहा कि मैं पापा से भी यही बात कहूंगा, कि मम्मा से शादी करके अच्छा किया। हमें इतने अच्छे नाना-नानी मिले।

पिछले पांच सालों का यही हासिल है। बहुत समझदार बच्चे बड़े किए हैं मैंने। ये भी मालूम है कि अगले पांच साल में ये संतोष भी dilute हो जाएगा। हर माइलस्टोन पर हमारी ज़रूरतें बदल जाती है। ज़िन्दगी को देखने का नज़रिया बदल जाता है।

मौसी ने फोन किया और कहा कि गीता पढ़ो। सरेंडर कर दो। तुम कुछ नहीं करती। तुम सिर्फ़ देख रही हो। कोई और करवाता है तुमसे। इस जन्म में तुम्हें जो हासिल करना था, कर लिया। कर ही लोगी। तुम अगले जन्म की तैयारी करो। मौसी कहती जा रही है, और मैं सुनती जा रही हूं। मुझसे छह साल ही तो बड़ी है मौसी। फिर ऐसी बात क्यों कर रही है मुझसे? कोई एनिवर्सिरी की बधाई देते हुए इस तरह की बातें करता है क्या?

नताशा फोन करती है तो मैं रो पड़ती हूं। पांच साल बनाम दस साल का लेखा-जोखा रुलाने क्यों लगा है? मैं तब कहां थी? मैं अब कहां हूं? तब मैंने ख़ुद से भी कुछ कहने से डरती थी। अब मैं कम से कम acknowledge करने लगी हूं कि कहां कहां और किस किस तरह का रिजेक्शन मुझे परेशान करता है। तुम हील हो रही हो, वो कहती है। मुझे मेरे गहरे ज़ख्म दिखते हैं, मैं कहती हूं। अपने ज़ख़्मों को देख पाना, स्वीकार कर लेना कि कहीं चोट लगी है भी हीलिंग का प्रोसेस है। पता नहीं क्या है। ज़िन्दगी भर क्या यही करते हुए निकलेगा? चोट गिनते, मरहम लगाते, कभी ख़ुद को बचाते कभी दूसरों को बचाते।

कुंए में रस्सी डाली जाएगी और तुम बाहर निकल आओगी, वो कहती है। मैं कहती हूं, मुझे कुंए की आदत है। बाहर की हवा में सांस घुटती है। बाहर निकल आती हूं तुम जैसे दोस्तों की मेहरबानी से। लेकिन फिर कुंए में कूद जाती हूं। कुंए के पानी की गहराई का अंदाज़ा है। बाहर की दुनिया कितनी बड़ी है, नहीं जानती। जिसे जानती नहीं, उसे गले कैसे लगा लूं?

हम सब कुँए से निकालने और फिर उसमें कूदते रहने का खेल खेलते रहते हैं ज़िन्दगी भर।

मैं गॉन गर्ल देखने जाना चाहती हूं। कुँए में कूदते रहने और उससे वापस निकलते रहने के कई यादगार लम्हे आते रहें, यही दुआ करने के लिए।  

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