सोमवार, 15 मार्च 2010

कमल का फूल

पार्क में बच्चे कमल का फूल खेल रहे हैं। बचपन में खेला करते थे हम ये खेल। दो साथी बैठकर विभिन्न मुद्राओं में हाथों को नीचे से ऊपर ले जाते थे, बारी-दर-बारी। और तीसरे साथी को हाथों के ऊपर से छलांग लगाना होता था। हर बारी में दोनों साथियों के हाथ साथ-साथ ऊपर, फिर थोड़ा ऊपर जाते थे। फिर ऐसे कि सिर से ऊपर हाथ हों। हमें कूद ने में मज़ा आता था, कमल का फूल बनाने में नहीं। जिस बच्चे का पैर हाथों से बने फूल से छू जाए, उसकी बारी बैठने की होती।

ऐसे कई खेल हैं जो अब बच्चे नहीं खेलते। पार्क के ये बच्चे भी सर्वेन्ट्रस क्वार्टर के बच्चे हैं। अपार्टमेंट के बाकी बच्चे तो स्विमिंग, टेनिस, साइकलिंग और बास्केट बॉल जैसी एक्टिविटिज़ के लिए कई तरह की अकादमी में जाते हैं।

डेंगा-पानी, लुका-छुपी, आंखमिचौली, गिली-डंडा जैसे खेल हम जैसे छोटे शहरों के लोअर मिडल क्लास तबके के वयस्कों की यादों का हिस्सा-भर हैं अब। तब पूरे मोहल्ले के बच्चे एक मैदान में या किसी के आंगन में दोपहर की नींद के बाद इकट्ठा होते। हमें दोस्त बनाने के लिए कभी मेहनत नहीं करनी पड़ी। मैं अपने बचपन के दोस्तों से सदियों से नहीं मिली, लेकिन अपनी गुड़िया की शादी की बारात में हमने किसे-किसे समोसे खिलाए थे, आज भी याद है। गिली-डंडा मुझे मेरे भाई ने सिखाया, साइकिल और स्कूटर चलाना एक दोस्त के चाचा ने। हम जुटते तो धमाचौकड़ी होती, कित-कित के लिए खींची गई लकीरों कई दिनों तक आंगन की शोभा बढ़ाती। ये सारे खेल कहां चले गए? मैं अपने बच्चों को ये सब क्यों नहीं सिखाती?

फिलहाल, मैं अपने दोनों बच्चों और उनके जैसे अपार्टमेंट के बाकी बच्चों को रिंग-अ-रिंग रोजेस खेलने के लिए बुला रही हैं, उन्हें दोस्ती करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हूं। लेकिन मेरा पूरा ध्यान कमल के फूल की ओर है।

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